on बुधवार, 31 जुलाई 2013




ख्वाब हमारे आँखों में भी पलते है ………
 

ईंट के भट्टों से इंटरनेट के आकाश तक

on शनिवार, 13 नवंबर 2010

ईंट के भट्टों से इंटरनेट के आकाश तक

बाल विवाह आज भी जारी है.....

on बुधवार, 1 सितंबर 2010

बचपन खोया सिंदूर के रंगों में .......
खेल खिलौने पढना लिखना,
सब छूटा इस बचपन में ....
धमा चौकड़ी उछल कूद,
खोया सिंदूर के रंगों में....

हुई पराई सब अनजाना,
देखो मेरे इन आँखों में....
घर के चौके घर के चूल्हे,
खेल बने अब आँगन में ......

तुमसे बस इतना मै पुछू,
ये सजा दिया क्यों बचपन में
क्या लौटा पाओगे तुम ,
मुझको मेरे बचपन में....?????

आंखन देखि...कानन सुनी.... देश का अपना हालात

on गुरुवार, 3 सितंबर 2009

आंखन देखि...कानन सुनी.... देश का अपना हालात ...........

गाँव का तथाकथित विकास....



कानपूर जिलाधिकारी कार्यालय के गेट पर खड़ी ये बस......सही अर्थों में गाँव का हाल बयाँ कर रही है.... आज गाँवो में विकास की हालत इस गाड़ी की तरह ही है.......

स्वछता का प्रतीक....


बनारस के अस्सी घाट पे बना ये सुलभ शौचलय जो स्वछता का प्रतीक बनकर खड़ा है..... आज स्वछता के नाम परकभी गंगा...कभी जमुना...कभी गोमती... तो कभी नगर सफाई के नाम पर अरबो रुपए बहाने के बाद भी...... स्वछता योजनाओ का सही अर्थो में इसी तरह का हाल है.......

राजनीतिक पार्टियों का होता हश्र......


बिहार के एक गाँव में ये घर कभी एक राजनीतिक पार्टी का केन्द्र हुआ करता था..... मगर आज अपनी हालात परख़ुद शर्मिंदा है..... जनता राजनीतिक पार्टी के बोर्डो का सही उपयोग करना शायद सीख रही है........ आज जिस तरहसे राजनैतिक पार्टियो का चरित्र गिर रहा है....वो दिन दूर नही जब सभी राजनैतिक पार्टियो के बोर्डो पर इसी तरह केसिम्बल टंगे होंगे.....................

नदी.. नाव.. नाविक के अस्तित्व का संकट

on मंगलवार, 2 जून 2009

नदी...नाव.. नाविक...और नाव बनने वालों के अस्तित्व का संकट............

हैया... रे ... हैया......हैया....रे..हैया.....हैया....रे....हैया.... सदियों से ये बोल नाव और नाविक को अपनी मंजिल की तरफ़ बढ़ते रहने का साह्स और हौसला देती रही है........

नदी... नाव... नाविक... और नाव बनाने वाले..... इनके बीच सदियों से..... एक अटूट सम्बंध रहा है........ मगर आज
ये ताना - बाना बिखर गया है .... आहिस्ता.... आहिस्ता ....टूट गया है .......

अब तो
नदियों में..... पानी है ... नाव..... है तो सिर्फ़ तथाकथित विकास के नाम पर..... बड़े.... बड़े... बाँध... आज नाव बनाने और चलाने वाले परिवार... शहर में रिक्शा चला रहे है .....जिनके बनाई कृतियों ने.... समंदर को नापा है... आज उनके वंशज ....रिक्शो से सड़क नाप रहे है......
हैया... रे ... हैया.....आज ये गीतों के बोल.... शायद खत्म हो चुके है........डूबते सूरज की तरह... डूब रहा है ..नाव...नाविक...और नाव बनाने वालों का अस्तित्व........

हम आने वाली पीढ़ियों को...... को सुनायेंगें शायद किस्सा.... कि कभी बहती थी नदी.... उसमे चलते थे नाव... और
नदी के किनारे बसते थे बनाने वाले नाव.......और दिखायेंगे उन्हें ये पेंटिंग ताकि उन्हें... मिल सके... कल्पनाओं को रंग... नदी... नाव ..नाविक.... और नाव बनाने वालों की.......



मै हूँ तितली रंग बिरंगी

on शुक्रवार, 29 मई 2009

फूलों के संग मेरा जीना
रस उनका मुझको पीना
मै हूँ तितली रंग बिरंगी
नीली - पीली और
सतरंगी

उड़ते - उड़ते आती हूँ
बागों में मै जाती हूँ
रंग बिरंगे फूलों संग
उनके रंग चुराती हूँ

तुम भी आओ मेरे संग में
रंग भी जाओ मेरे रंग में
मै रंगों की रानी हूँ
प्यारे फूलों की नानी हूँ

काश की तुम तितली होते
हर-पल हर-दम संग रहते
हम तुम दोनों संग उड़ते
फूलों के संग हम जीते
दूर देश हर-दम जाते
पंख पे बादल हम लाते
काश की तुम तितली होते
हर-पल हर-दम संग रहते...


बारिश खत्म हो गई थी ... कुछ बूंदे पेड़ों के पत्तों से फिसल कर जमीं पर गिर रही थी... मै बगीचे में टहल रहा था... बारिस में भींगे फूलों पर तितलियाँ इठला रही थी... और उनके बीच था.... मै और मेरा कैमरा ......




माँ के जिस्म पर जिन्दा है बच्चें

माँ जो ढोती है अपने जिस्म पर... बच्चों का बोझ......अपनी मौत तक ...

माँ की जिस्म से चिपके बच्चें..... माँ के जिस्म को नोच- नोच खा रहे है.... और अपनी पेट की भूख को मिटा रहे है.... माँ दर्द सहती है ... फ़िर भी बोझ को लिए आगे बढती है.... अपने बच्चों को जिन्दा रखने के लिए......


जिस्म का मांस बच्चे नोचकर ख़त्म कर चुके है... माँ के हड्डियाँ दिखाई पड़ रही है... बच्चे अब बड़े हो चले है पर अभी भी बाकी है माँ की हड्डियों में जान.... चूसेंगें उन हड्डियों को जब तक है ... माँ में अभी बाकी जान...

अब बोझ असहनीय हो गया है... अब एक कदम भी चलना दुश्वार है... अब माँ की मौत करीब है... मगर बोझ अभी पीठ पर है... एक बच्चा पीठ से गिर गया है.... वापस उसे पीठ पर प्यार से उठा के रख रही है माँ.... अंतत: एक दिन बोझ लिए मर जाती है माँ..........

ये बिच्छू की फोटोग्राफ मैंने एक दिन बगीचे में ली थी। बिच्छू के बच्चे पैदा होते ही अपनी माँ की पीठ पर चिपक जाते है ... और उसका जिस्म ही उनका आहार होता है वे बच्चे तब तक चिपके रहते है जब तक बिच्छु जिन्दा रहता है , उसके जिस्म का सारा मांस जब ख़त्म हो जाता है और बिच्छू मर जाता है तब उसके पीठ से वे बच्चे उतर जाते है और स्वतंत्र होकर जीते है........ ऐसा मानना है .....